Billi ki kahani
बार एक सिद्ध ऋषि अपने कुछ शिष्यों के साथ जंगल में आश्रम बनाकर रहते थें । उनके शिष्य उन्हे गुरुजी कहकर बुलाते थे । वे सभी प्रातः काल एवम सांय काल में एक वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान साधना करते थे । गुरु जी का आसन पेड़ के तने के पास थोड़ी ऊंचाई पर लगाया जाता। और शिष्य सभी एक साथ नीचे बैठ कर गुरु के साथ ही ध्यान करते ।
एक दिन गुरु जी वन में टहलने के लिए जा रहे थे । तभी उन्हें एक घायल बिल्ली का बच्चा दिखाई दिया। गुरुजी को उसे देखकर दया आ गई। वे उसे उठाकर आश्रम ले आए ।
गुरु जी ने उसका उपचार किया और उस भूखे प्यासे बिल्ली के बच्चे को दूध-रोटी खाने को दी । अब वह बच्चा वहीं आश्रम में रहकर पलने लगा। उसे गुरुजी से बहुत अधिक लगाव हो गया , गुरु जी भी उसे बहुत पसंद करते थे ।
लेकिन उसके आने के बाद गुरुजी को एक समस्या उत्पन्न हो गयी कि जब वे सायं या प्रातः ध्यान में बैठते तो वह बिल्ली का बच्चा कभी उनकी गोद में , कभी कन्धे या सिर पर बैठ जाता ।जिससे गुरुजी की ध्यान साधना नही हो पा रही थी ।
एक बार गुरुजी ने अपने एक शिष्य को बुलाकर कहा - " देखो मैं जब भी ध्यान पर बैठू, उससे पूर्व तुम इस बच्चे को पेड़ के तने से बॉध दिया करो।
अगले दिन से ऐसा ही होने लगा । ध्यान से पहले बिल्ली के बच्चे को पेड़ से बांधा जाता और ध्यान के बाद उसे खोल दिया जाता । धीरे धीरे बिल्ली का बच्चा वयस्क हो गया ,किंतु नियम के तहत उसे लगातार ध्यान के वक्त पेड़ से बांध दिया जाता । ऐसे ही समय बीतता रहा ।
एक दिन बीमारी की वजह से गुरुजी की मृत्यु हो गयी तो उनका एक प्रिय काबिल शिष्य उनकी गद्दी पर बैठा । किंतु अब बिल्ली का लगाव तो पुराने गुरुजी से ही था तो वह उनके दुख में सुस्त पड़ गई । उसने ज्यादा खेलकूद बंद कर दी ।
अब आश्रम का नया गुरुजी उस शिष्य को बनाया गया। वह भी नियमानुसार जब पहली बार ध्यान पर बैठा तो उसे याद आया की गुरुजी ध्यान से पहले बिल्ली को पेड़ से बंधवाते थे । उसने अपने शिष्य को आदेश दिया - वह बिल्ली कहां है ? उसे लाओ और पेड़ पर बांध दो , और प्रत्येक समय जब भी ध्यान साधना हो यही करो।
जबकि बिल्ली का स्नेह पुराने गुरु जी के साथ था तो वह उनके पास खेलने आती थी । और किसी के पास तो वह खुद ही नही आती थी , किंतु गुरु जी के आदेश के कारण उसे फिर से पेड़ से बांधा जाने लगा ।
फिर एक दिन तो अनर्थ हो गया, बहुत बड़ी समस्या आ खड़ी हुयी कि वह बिल्ली ही मर गयी।
सारे शिष्यों की सभा हुयी, सबने विचार किया कि बड़े गुरुजी जब तक बिल्ली पेड़ से न बॉधी जाये, तब तक ध्यान पर नहीं बैठते थे। अत: पास के गॉवों से कहीं से भी एक बिल्ली लायी जाये। आखिरकार काफी ढॅूढने के बाद एक बिल्ली मिली, जिसे पेड़ पर बॉधने के बाद गुरुजी ध्यान पर बैठे।
और ऐसे ही यह नियम बन गया । कितने गुरु आए और चले गए , कितनी ही बिल्लियां भी आई और चली गई। आज भी वहां ध्यान से पूर्व पेड़ से बिल्ली बांधी जाती है ।
पहले जो मजबूरी थी , बाद में वो नियम बन गया, और नियम बाद में प्रथा में बदल गया ।और प्रथा आगे चलकर अंधविश्वास में बदल जाती है । और कभी कोई सवाल नही करता । बस चुपचाप पेड़ से बिल्ली आज भी बांधी जा रही है । बस इसलिए की यह तो एक परंपरा है ।
कोई पूछे तो कहते हैं की हमारे पुराने सारे गुरुजी करते रहे, वे सब गलत तो नहीं हो सकते । कुछ भी हो जाये हम अपनी परम्परा नहीं छोड़ सकते।
यह बात कड़वी है किंतु सत्य है, कहीं न कहीं हम सबने भी एक नहीं, अनेकों ऐसी बिल्लियॉ बांध रखी हैं । कभी गौर किया है इन बिल्लियों पर ?सैकड़ों वर्षो से हम सब ऐसे ही और कुछ अनजाने तथा कुछ चन्द स्वार्थी तत्वों द्वारा निर्मित परम्पराओं के जाल में जकड़े हुए हैं।
जरूरत है आज हमारी बांधी हुई मानसिक बिल्लियों पर विचार करने की । क्या जिसे हम परंपराओं के नाम पर ढो रहे हैं , उनका क्या अर्थ है ? क्या वे आवश्यक है ? अपनी बुद्धि और तर्क का इस्तेमाल करे ।
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