गौतम बुद्ध हिंदी में कहानी -
भगवान महात्मा बुद्ध और डाकू अंगुलिमाल की कहानी भारतीय धर्म के महत्वपूर्ण एवं प्रसिद्ध कथाओं में से एक है। budhha face is symbol of peace . यह कथा भगवान बुद्ध के जीवन से जुड़ी है और उसकी प्रभावशाली शिक्षाओं को चरितार्थ करती है।Budhha painting is given below:
कथा के अनुसार, एक नगर के पास के जंगल ।e अंगुलिमाल नामक एक डाकू रहता था ।जंगल से गुजरने वाले लोगों के लिए एक भयानक समस्या बन गया था। उसने अनगिनत लोगों को मार डाला और उनकी उँगलियों को काटकर उनकी माला बनाकर पहनता था । लोग उसके भय से विवश हो गए थे और उन्होंने जंगलों से आना जाना बंद कर दिया था।
एक बार भगवान बुद्ध का उस नगर में आगमन हुआ । उन्होंने अपने शिष्यों और भक्तो को दीक्षा दी , और फिर आगे दूसरे नगर के लिए चलने की तैयारी करने लगे , उस नगर का रास्ता उसी जंगल से होकर जाता था , जहां अंगुलिमाल का आतंक था । जब नगरवासियों को यह बात पता चली तो वे भगवान बुद्ध के पास आए और कहा की प्रभु आप इस जंगल के रास्ते से ना जाएं , क्युकी वहा एक अंगुलमाल नामक एक डाकू है जो आते जाते राहगीरों को लूटकर उन्हे मार देता है और फिर उनकी उंगली काटकर माला के रूप में पहनता है। वह बहुत ही निर्दयी और क्रूर है। बूढ़े , जवान , महिला , बच्चो तक को नहीं छोड़ता ।
भगवान बुद्ध ने परेशान गांव वालो को देखा , उनके चेहरे पर जरा भी शंका या परेशानी दिखाई नहीं दे रही थी । हमेशा की तरह वे बस शांत चित्त होकर बैठे मुस्कुरा रहे थे ।भगवान बुद्ध ने परेशान भक्तो से कहा - "आप लोग चिंता न करें, यह शरीर एक नश्वर वस्तु है।
Some budhha statue are given below
इसका कितना आप मोह करेंगे ,उतने ही आपके अंदर डर का बसेरा होगा । और रही बात अंगुलिमाल की तो वह एक भटका हुआ व्यक्ति है। उसे बस सही मार्ग दिखाना है । इंसान कोई भी बुरा या अच्छा नही होता , यह उसके विचार होते हैं जो उसे ऐसा बनाते हैं।"
इसका कितना आप मोह करेंगे ,उतने ही आपके अंदर डर का बसेरा होगा । और रही बात अंगुलिमाल की तो वह एक भटका हुआ व्यक्ति है। उसे बस सही मार्ग दिखाना है । इंसान कोई भी बुरा या अच्छा नही होता , यह उसके विचार होते हैं जो उसे ऐसा बनाते हैं।"
भक्तों को तथागत बुद्ध की बात ज्यादा समझ नही आई , क्युकी वे जानते थे कि अंगुलिमाल बहुत क्रूर है , यदि तथागत उस रास्ते से जाते है तो निश्चित तौर पे अंगुलिमाल उन्हे मार देगा ।
पर बुद्ध एकदम शांत चित्त निडर होकर उस मार्ग पे अकेले ही चल दिए । नगर के बाहर तक उन्हें लोग छोड़ने आए और ना चाहते हुए भी उन्हे विदा किया । क्युकी वह जानते थे की बुद्ध को शायद आज वे आखिरी बार देख रहे हैं।फिर भी भारी मन से उन्हें विदा किया , और तथागत अकेले ही जंगल के रास्ते चल दिए।
थोड़ी दूर चलने पर रास्ता एकदम वीरान , सुनसान और घना हो गया । किसी आम आदमी का तो ऐसे रास्ते पे चलने पर ही डर से बुरा हाल हो जाए ।लेकिन बुद्ध एकदम शांत , निडर बस चले जा रहे थे । जैसे वे किसी सुरक्षित किले में चल रहें हों।
थोड़ी ही देर में अंगुलिमाल को पता चल गया की कोई राहगीर उसके इलाके में आया है । वह अपना फरसा लेकर तैयार हो गया । उसने दूर से बुद्ध को देखा । एक अलग सा तेज उनके चेहरे से आता देख वह समझ गया की ये कोई साधारण मनुष्य नही है । उसे लगा यह कोई धनवान व्यक्ति है जो मेरे डर से साधू का वेश बनाकर रास्ता पार करना चाहता है। अंगुलिमाल बहुत खुश हो गया , उसे लगा की आज इस धनवान व्यक्ति को लूटकर वह बहुत धन कमाएगा और उसकी उंगली काटकर आज अपनी माला में एक और उंगली जोड़ेगा ।
उसने तथागत के पास आते ही गुर्राते हुए आवाज लगाई - "ठहर जा राहगीर ।"
भगवान बुद्ध ने उसे अनसुना करते हुए बिना कोई प्रतिक्रिया दिए शांत चित्त आगे बढ़ते रहे ।
डाकू ने झल्ला कर फिर चिल्लाया -" ठहर जा साधू , कहा जाता है?"
किंतु तथागत ने उसे फिर अनसुना कर दिया और वे आगे बढ़ गए ।
इस बार डाकू का पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया - " ठहर जा साधू , वरना बेमौत मारा जायेगा"
इस बार तथागत रुक गए । लेकिन एकदम शांत , मुस्कुराते हुए खड़े हो गए ।
अंगुलिमाल उनके सामने फरसा लेकर गुस्से से लाल होते हुए आकर खड़ा हो गया और चिल्लाते हुए बोला -" बहरा है क्या तू साधू ? कब से ठहरने को बोल रहा था , तू ठहरा क्यों नही ? "
तथागत ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया - " मैं तो ठहर गया हूं मनुष्य। तुम कब ठहरोगे ?"
अंगुलिमाल को तथागत के मुख से निकले ये गूढ़ शब्द कुछ विचलित कर गए । उसे किसी से भी यह उम्मीद भी न थी की कोई उसके सामने बिना डरे कभी ऐसी बात भी बोल सकता है। उसने बुद्ध से कहा - "कहना क्या चाहते हो तुम ? क्या मतलब है इसका की में ठहरा नही हूं?"
तथागत ने कहा -" मैं जीवन के इस सफर में तुमसे ठहरने को कह रहा हूं , क्या तुम्हारा मन ठहरा हुआ है ? क्या जो तुम करते हो उससे तुम्हे शांति मिलती है ? मुझे तो नही लगता । मुझे तुम्हारे अंदर डर दिखता है। "
अंगुलिमाल बोला - "डर ? मुझे किस बात का डर है ? यह जंगल मेरा इलाका है । यहां मुझे किसी से भी कोई डर नही है । तुम किस डर की बात करते हो ?"
तथागत - " वही डर जो तुम्हारे अंदर है , जो तुम्हे यह सब करने के बाद तुम्हे अंदर से कमज़ोर बनाता है । वह डर जो तुम्हे इस जंगल के अलावा कही भी बाहर जाने से रोकता है ।"
अंगुलिमाल कुछ सोच में पड़ गया !
बुद्ध फिर बोले - " देखो, मैं सभी इच्छाओं और भय से मुक्त हूं। मैं इस संसार में बिना डरे कही भी आ जा सकता हूं, मैं लोगो से मिल सकता हूं , उनके दुख दर्द बांट सकता हूं। और यह सब करने के बाद मुझे रात में एक सुकून भरी नींद आती है । क्या यह सब तुम भी कर सकते हो ?"
अंगुलिमाल को पहली बार ऐसा लगा की कोई उससे भी ज्यादा ताकतवर उसे मिला है । जो बिना हथियार के उसे परास्त कर रहा है।
वह फिर संभलते हुए बोला - "होंगे आपको मुझसे ज्यादा सुख , पर में भी जो करता हूं उसे अपने और अपने परिवार के भरण पोषण के लिए करता हूं , अपने परिवार का पेट पालना गलत कैसे हो सकता है । हां इसमें पाप है , पर में केवल यही करना जानता हूं ।और में यही करूंगा , तुम मेरे आज के शिकार हो , तुम्हे मारकर आज में अपनी माला में पूरे एक हजार मनके कर लूंगा । "
बुद्ध ने फिर एक बार मुस्कुराते हुए कहा - " ठीक है । अगर तुम मुझे मारना ही चाहते हो तो ठीक है। मैं तैयार हूं , पर मरने वाले की आखिरी इच्छा समझ कर मेरे एक प्रश्न का उत्तर दे दो ।"
अंगुलिमाल ने हामी भरते हुए कहा -" ठीक है , जल्दी कहो जो भी कहना है ।"
तथागत - "तुम मानते हो की तुम्हारे इस कर्म का फल केवल पाप ही है । तो क्या जिस पाप की कमाई से तुम अपने परिवारीजन का पेट पालते हो तो वो भी क्या उतने ही उस पाप कर्म के भागीदार हुए ?"
अंगुलिमाल सोचते हुए बोला -" हां ! क्यूं नही । जब वे मेरी पाप की कमाई खाते हैं तो यह पाप हम सबमें बराबर बटेगा ।"
बुद्ध ने मुस्कुराते हुए कहा - "यह तुम्हारा खुद का मानना भी तो हो सकता है। "
अंगुलिमाल - नही, भिक्षु ! यह ही सत्य है , पाप करने वाले और पाप का खाने वाले सब बराबर के हिस्सेदार है । क्युकी मेरे घरवालों को पता होता है की यह कमाई किस तरह से की गई है । फिर भी वे उसका उपभोग करते है तो वे भी बराबर के भागीदार हैं। "
तथागत - "अच्छा ! तो तुम्हे ऐसा लगता है । क्यूं ना एक बार तुम अपने घरवालों से खुद ही पूछ आओ, की क्या वे तुम्हारे पाप कर्म में हिस्सेदार है ? "
अंगुलिमाल - "बहुत तेज बनते हो साधू , भागने का अच्छा तरीका निकाला है । मैं चला जाऊ पूछने और तुम यहां से भाग जाओ !"
तथागत -" मनुष्य ! में तो पहले ही कह चुका हूं की में तो ठहरा हुआ हूं। मुझे मौत का भय होता तो में जानबूझ कर इस रास्ते आता ही क्यों । और फिर भी यदि तुम्हे न विश्वास हो तो में वचन देता हूं। तुम्हारे आने तक में इसी वृक्ष के नीचे बैठा रहूंगा ।"
अंगुलिमाल को बुद्ध की बातो ने मोहित सा कर लिया । उसने तथागत को वही रुकने को बोलकर अपने परिवार के पास आया ।और बुद्ध के प्रश्न को उनके सामने दोहराया की क्या तुम लोग जो मेरी पाप की कमाई खाते हो,तो मेरे पाप कर्म में तुम भी भागीदार हो ? "
लेकिन उनका जवाब सुनकर अंगुलिमाल के पैरो तले जमीन खिसक गई । उसके विचार का उल्टा ही सब उसे मिला ।
अंगुलिमाल के बीवी बच्चो माता पिता ने सबने पाप कर्म में भागीदार बनने से इंकार कर दिया और कहा - हमे खिलाना पिलाना तुम्हारी जिम्मेदारी है । तुम यदि सत्कर्म करके लाओ या दुष्कर्म , वो केवल तुम्हारे अपने पाप और पुण्य है। हम किसी में भागीदार नहीं है ।"
अंगुलिमाल अंदर से हिल गया । उसके हाथ से फरसा छूट कर गिर गया । उसे एहसास हो गया की वह कितने गलत रास्ते पर था । वह वापस मुड़ा और बुद्ध की और तेज कदमों से लडखडा कर चल दिया ।
वहां पहुंचकर उसने देखा की बुद्ध एक पेड़ के नीचे शांत चित्त ध्यान लगाए बैठे है। उनके चेहरे से अपार तेज झलक रहा है। उन्हे देखकर परम शांति का अनुभव हो रहा था ।
अंगुलिमाल ने अपनी माला उतार फैंकी । और बुद्ध के चरणों में गिर गया। उनसे अपने दुष्कर्मों की क्षमा मांगी । बुद्ध ने उसे उठाकर गले से लगाया और सच्चाई की राह दिखाई । डाकू अंगुलिमाल ने फिर भिक्षु बनकर मानवता की सेवा करने का प्रण लिया । उस दिन अंगुलिमाल , बौद्ध भिक्षु अंगुलिमाल बन गया। और उसके अंदर का डाकू सदेव के लिए मारा गया ।
बुद्ध वंदना-
बुद्धं शरणं गच्छामि”
संघं शरणं गच्छामि”
धम्मं शरणं गच्छामि”।।
द्वितीयंपी बुद्धं शरणं गच्छामि”
द्वितीयंपी संघं शरणं गच्छामि”
द्वितीयंपी धम्मं शरणं गच्छामि”।।
तृतियपी बुद्धं शरणं गच्छामि”
तृतियपी संघं शरणं गच्छामि”
तृतियपी धम्मं शरणं गच्छामि”।।
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